Fordidden Hearts
उदयपुर की हवाओं में दबी एक आह…
उदयपुर की सुबह हमेशा की तरह शांत नहीं थी। झीलों की नगरी में आज हल्की धुंध थी… जैसे हवा खुद किसी पुराने दर्द को छुपाने की कोशिश कर रही हो।
उस धुंध से निकलता हुआ एक घर था— राठौड़ हवेली।
ऊंची-ऊंची दीवारों, पुराने नीले झरोखों और राजस्थानी नक्काशी से सजी ये हवेली दूर से किसी कहानी की तरह खूबसूरत लगती थी…
पर अगर कोई थोड़ा करीब आता, तो दीवारों में बसी खामोशी, घुटन और दर्द को महसूस कर सकता था।
इसी हवेली के एक कमरे में, खिड़की के पास सफेद साड़ी में बैठी थी—
मीरा राठौड़।
उम्र— सिर्फ 24…
पर आँखों में उम्र से कहीं ज़्यादा थकान।
जैसे समय ने उसे बाकी लड़कियों की तरह आगे बढ़ने नहीं दिया… बस रोक लिया, वहीं… किसी अंधेरे मोड़ पर।
वो चुप थी… हमेशा की तरह।
खिड़की से झील पिछोला का पानी चमक रहा था, लेकिन उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी।
उसने साड़ी के पल्लू को कस कर पकड़ा… आदत थी यह—
जब दिल बिखरने लगे, तो हाथ कुछ पकड़ लेते हैं।
“मीरा…”
पीछे से धीमी सी आवाज़ आई।
दरवाज़े पर खड़ी थी सावी राठौड़ — मीरा की सास।
पर इस घर के लोग उसे सास नहीं, सावित्री देवी कहते थे।
उनकी आँखों में कोई ममता नहीं थी।
बस कड़वाहट… और पुराने ज़ख्म।
उन्होंने मीरा की तरफ ऐसे देखा जैसे वो इंसान नहीं, उनके बेटे की मौत की वजह हो।
“अभी तक तैयार नहीं हुई?”
आवाज़ शांत थी… पर उसमें ठंड थी, बर्फ जैसी।
मीरा ने धीरे से कहा,
“जी… अभी करती हूँ।”
“जल्दी करो। आज श्राद्ध है। लोग आएँगे।
और हाँ…”
सावी रुकी, आँखें तिरी।
“आज किसी को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि तुम्हें कोई दुख नहीं है।”
ये वाक्य, यह ताना —
मीरा रोज़ सुनती थी।
हर दिन।
हर सांस के साथ।
लेकिन आज…
किसी वजह से दिल थोड़ा ज़्यादा दर्द कर रहा था।
क्योंकि आज उसकी शादी की सालगिरह थी।
वही दिन…
जब उसने इस घर में दुल्हन बनकर कदम रखा था।
हँसती हुई।
आशाओं से भरी हुई।
वही दिन…
जो अब श्राद्ध और इल्ज़ामों से भरा हुआ था।
मीरा धीरे से उठी।
आँखों में आंसू नहीं थे—
आखिर रो-रोकर भी तो आँसू खत्म हो जाते हैं।
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कुछ महीने पहले…
मीरा की शादी हुई थी वीर राठौड़ से।
वीर— शांत, समझदार, और बेहद नरम दिल इंसान।
वो मीरा की दुनिया था।
दोनों को सिर्फ कुछ ही महीने मिले… बस कुछ।
एक रात…
हवेली लौटते समय गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ।
वीर ने मीरा को बचा लिया…
पर खुद चला गया।
और उस दिन से—
सावी और पूरे घर की नज़र में
मीरा \= मौत की वजह।
कोई कुछ सीधा नहीं कहता था,
पर हर नज़र, हर चुप्पी, हर सांस —
मुजरिम घोषित कर देती थी उसे।
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आज
मीरा जब हवेली के आँगन से गुजरी,
उसके कदमों की आवाज़ भी किसी को पसंद नहीं आई।
लोग फुसफुसाते थे—
“यही है ना? जिसके कारण वीर जी…”
मीरा सुनती थी।
हर शब्द, हर ताना, हर तीर—
जैसे उसके दिल के अंदर जाकर बैठ जाता था।
लेकिन फिर भी…
वो शांत थी।
क्योंकि वो टूटने की जगह जी रही थी।
बस… जीने की कोशिश में।
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और इसी शहर से दूर… मुंबई में
एक कांच से बने ऊँचे टॉवर की 32वीं मंजिल पर
काले सूट में, घड़ी को देखता हुआ खड़ा था—
आरिक सिंघानिया।
जिसकी आँखें ठंडी थीं।
चेहरा कठोर।
आवाज़ कम।
और विश्वास? लगभग किसी पर नहीं।
वो सिंघानिया ग्रुप का वारिस था।
शहर जिसे सलाम करता था।
लेकिन जीवन ने उससे भी कुछ छीन लिया था…
कुछ ऐसा…
जिसने उसे अंदर से खाली छोड़ दिया था।
कहते हैं—
जो लोग बाहर से सबसे मजबूत दिखते हैं,
अंदर सबसे अधिक अकेले होते हैं।
आरिक… वैसा ही था।
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पर किसे पता था—
छोटे से शहर उदयपुर में बैठी
सफेद साड़ी की एक टूट चुकी लड़की
और
मुंबई के आसमान पर राज करने वाला एक पत्थर दिल आदमी…
एक दिन एक-दूसरे की ज़िन्दगी बदलने वाले हैं।
कहते हैं,
किस्मत… हमेशा चुपचाप चलती है।
धीरे-धीरे।
बिना शोर किए।
और यह कहानी…
बस शुरू हुई है।
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