मुंबई का आसमान, और एक अधूरा आदमी…
मुंबई कभी रुकती नहीं।
ट्रैफिक की आवाज़, लोगों की भागदौड़, रात को भी जगते नीयन लाइट्स — यहाँ सब कुछ तेज़ था, हड़बड़ाहट से भरा…
और इसी तेज़ रफ्तार में एक आदमी था, जो भीतर से बेहद थका हुआ था।
आरिक सिंघानिया।
किसी बिजनेस पत्रिका के कवर पर देखने वाले लोग शायद कहेंगे—
“क्या शख़्स है! कितना ताकतवर! कितना सफल!”
पर शक्ति और सफलता हमेशा शांति नहीं लातीं।
कभी-कभी तो ये सबसे बड़ा पिंजरा बन जाती हैं।
आरिक 32वीं मंज़िल पर बने अपने ओफिस के कांच वाले वॉल पर खड़ा शहर को देख रहा था।
गाड़ियाँ छोटे-छोटे नन्हें कीड़ों की तरह दिखती थीं…
ज़िन्दगी भाग रही थी…
और वो, उसे बस देख रहा था।
उसके कमरे में बड़े कॉरपोरेट मीटिंग की फाइलें, कॉन्ट्रैक्ट्स, और कागज़ रखे थे—
पर उसकी नज़र उनमें नहीं थी।
उसका मन कहीं और था।
कहीं… बहुत दूर।
दरवाज़े पर दस्तक हुई।
“Come in.”
आरिक की आवाज़ शांत थी, लेकिन उसमें एक अजीब सी खालीपन थी।
अंदर आया कबीर, उसका सबसे भरोसेमंद स्टाफ — और शायद, इंसान के रूप में जो उसके सबसे करीब था।
“सर, उदयपुर हेरिटेज होटल प्रोजेक्ट का बोर्ड मीटिंग आज शाम तय हो गया है,” उसने कहा।
“Hmm.”
आरिक ने बस इतना कहा।
कबीर ने उसे देखा।
कुछ सेकंड।
चुपचाप।
वह समझ चुका था—
आरिक इस समय कहीं और था।
शायद किसी याद में।
या किसी खोए हुए में।
“सर… आज…”
कबीर धीरे से बोला,
“आज… मैम की… बरसी है न?”
कमरे में हवा थोड़ी और भारी हो गई।
आरिक की आँखें कांच के पार शहर से हटकर, बहुत भीतर उतर गईं।
अहाना।
उसका नाम था अहाना।
उसकी पत्नी।
उसका प्यार।
उसकी सांस।
और उसकी सबसे बड़ी चुभन।
वो चली गई थी।
अचानक।
बिना कुछ कहे।
जैसे मौत को जल्दी थी।
जैसे ज़िन्दगी देर से जी रही थी।
आरिक ने धीरे से अपनी उंगलियाँ बंद कीं।
“मीटिंग की तैयारी करवाओ,”
उसने बस इतना कहा।
कबीर समझ गया —
आरिक आज भी उससे भाग रहा है।
अपने अतीत से।
अपने दर्द से।
अपनी अधूरी कहानी से।
वो चुपचाप कमरे से बाहर चला गया।
उसी समय — उदयपुर में
मीरा अब हवेली के आँगन में खड़ी थी।
आज हवेली में बहुत लोग आने वाले थे।
धीमी रोशनी, पीतल की दीपक की लपटें, और घर के पुरोहित की आवाज़ — सब कुछ तैयार था।
सावी राठौड़ सब देख रही थीं।
उनकी आँखें लाल थीं, शायद रोने से नहीं —
गुस्से, पछतावे और अभिमान से।
उन्हें लगता था,
अगर उस दिन, उस रात,
वो बहू उनकी गाड़ी में नहीं होती…
तो वीर आज जिंदा होता।
नफ़रत का कोई तर्क नहीं होता।
बस दर्द होता है — जो रास्ता ढूँढ लेता है।
मीरा शांत खड़ी थी।
उसके हाथ जुड़े हुए।
चेहरा शांत।
आँखें खाली।
पर उसके अंदर?
वहाँ आज तूफ़ान था।
वो वीर को बहुत चाहती थी।
सांसों जितना।
उसकी यादें ही उसकी ज़िन्दगी थीं।
उसकी हँसी ही उसकी पूजा थी।
किसे दोष दे?
किसे समझाए?
किसी को फर्क नहीं पड़ता था।
दोपहर
मीरा को हवेली के मेहमानों को चाय परोसनी थी।
वो बाहर आँगन में गई।
लोग बातें कर रहे थे:
“बेचारी सावी…”
“बेटा चला गया…”
“और ये?”
“बस जिंदा है… किस्मत देखो।”
हर शब्द सुई की तरह था।
मीरा का हाथ हल्का सा कांपा।
लेकिन उसने चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आने दी।
ये ही तो उसकी सबसे बड़ी ताकत थी—
चुप्पी।
उसी समय हवेली के बड़े दरवाज़े पर काली ऑडी आकर रुकी।
सबने मुड़कर देखा।
गाड़ी से उतरा
काला सूट, पैनी आँखें, भारी और स्थिर कदमों वाला आदमी—
आरिक सिंघानिया।
पूरा आँगन थोड़ी देर के लिए रुक गया।
राठौड़ हवेली और सिंघानिया ग्रुप का पुराने समय का बिजनेस जुड़ाव था।
वीर संभालता था —
अब उसकी जगह सावी मीटिंग करती थीं।
पर आज…
वो खुद आया था।
आरिक ने चारों तरफ एक नजर डाली।
चेहरा हमेशा की तरह पत्थर।
आँखें हमेशा की तरह शांत।
लेकिन कुछ था…
जैसे उसके अंदर कोई पुराने मकान की खिड़की आज खुली हो।
और फिर…
उसकी नज़र मीरा पर पड़ी।
सफेद साड़ी में, झील की तरह शांत,
पर आँखों में डूबा हुआ गहरा समंदर।
मीरा ने देखा —
लेकिन तुरंत नजर झुका ली।
उन दोनों के बीच कुछ नहीं कहा गया।
पर कुछ महसूस हुआ।
बहुत हल्का।
बहुत धीरे।
बहुत अनकहा।
जैसे दो घायल आत्माओं ने
एक-दूसरे की चोट पहचान ली।
कभी-कभी किसी को नाम से पहले दर्द से पहचाना जाता है।
और आज ऐसा ही हुआ।
आरिक ने खुद को संभाला।
सावी के पास गया।
पर उसकी आँखें…
कभी-कभी…
अचानक…
खिड़की के पास खड़ी उस लड़की की तरफ मुड़ जातीं।
शाम
रिवाज खत्म हो चुके थे।
लोग जा चुके थे।
मीरा मंदिर में दीया जला रही थी।
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