NovelToon NovelToon

Fordidden Hearts

chapter 1

उदयपुर की हवाओं में दबी एक आह…

उदयपुर की सुबह हमेशा की तरह शांत नहीं थी। झीलों की नगरी में आज हल्की धुंध थी… जैसे हवा खुद किसी पुराने दर्द को छुपाने की कोशिश कर रही हो।

उस धुंध से निकलता हुआ एक घर था— राठौड़ हवेली।

ऊंची-ऊंची दीवारों, पुराने नीले झरोखों और राजस्थानी नक्काशी से सजी ये हवेली दूर से किसी कहानी की तरह खूबसूरत लगती थी…

पर अगर कोई थोड़ा करीब आता, तो दीवारों में बसी खामोशी, घुटन और दर्द को महसूस कर सकता था।

इसी हवेली के एक कमरे में, खिड़की के पास सफेद साड़ी में बैठी थी—

मीरा राठौड़।

उम्र— सिर्फ 24…

पर आँखों में उम्र से कहीं ज़्यादा थकान।

जैसे समय ने उसे बाकी लड़कियों की तरह आगे बढ़ने नहीं दिया… बस रोक लिया, वहीं… किसी अंधेरे मोड़ पर।

वो चुप थी… हमेशा की तरह।

खिड़की से झील पिछोला का पानी चमक रहा था, लेकिन उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी।

उसने साड़ी के पल्लू को कस कर पकड़ा… आदत थी यह—

जब दिल बिखरने लगे, तो हाथ कुछ पकड़ लेते हैं।

“मीरा…”

पीछे से धीमी सी आवाज़ आई।

दरवाज़े पर खड़ी थी सावी राठौड़ — मीरा की सास।

पर इस घर के लोग उसे सास नहीं, सावित्री देवी कहते थे।

उनकी आँखों में कोई ममता नहीं थी।

बस कड़वाहट… और पुराने ज़ख्म।

उन्होंने मीरा की तरफ ऐसे देखा जैसे वो इंसान नहीं, उनके बेटे की मौत की वजह हो।

“अभी तक तैयार नहीं हुई?”

आवाज़ शांत थी… पर उसमें ठंड थी, बर्फ जैसी।

मीरा ने धीरे से कहा,

“जी… अभी करती हूँ।”

“जल्दी करो। आज श्राद्ध है। लोग आएँगे।

और हाँ…”

सावी रुकी, आँखें तिरी।

“आज किसी को यह महसूस नहीं होना चाहिए कि तुम्हें कोई दुख नहीं है।”

ये वाक्य, यह ताना —

मीरा रोज़ सुनती थी।

हर दिन।

हर सांस के साथ।

लेकिन आज…

किसी वजह से दिल थोड़ा ज़्यादा दर्द कर रहा था।

क्योंकि आज उसकी शादी की सालगिरह थी।

वही दिन…

जब उसने इस घर में दुल्हन बनकर कदम रखा था।

हँसती हुई।

आशाओं से भरी हुई।

वही दिन…

जो अब श्राद्ध और इल्ज़ामों से भरा हुआ था।

मीरा धीरे से उठी।

आँखों में आंसू नहीं थे—

आखिर रो-रोकर भी तो आँसू खत्म हो जाते हैं।

---

कुछ महीने पहले…

मीरा की शादी हुई थी वीर राठौड़ से।

वीर— शांत, समझदार, और बेहद नरम दिल इंसान।

वो मीरा की दुनिया था।

दोनों को सिर्फ कुछ ही महीने मिले… बस कुछ।

एक रात…

हवेली लौटते समय गाड़ी का एक्सीडेंट हुआ।

वीर ने मीरा को बचा लिया…

पर खुद चला गया।

और उस दिन से—

सावी और पूरे घर की नज़र में

मीरा \= मौत की वजह।

कोई कुछ सीधा नहीं कहता था,

पर हर नज़र, हर चुप्पी, हर सांस —

मुजरिम घोषित कर देती थी उसे।

---

आज

मीरा जब हवेली के आँगन से गुजरी,

उसके कदमों की आवाज़ भी किसी को पसंद नहीं आई।

लोग फुसफुसाते थे—

“यही है ना? जिसके कारण वीर जी…”

मीरा सुनती थी।

हर शब्द, हर ताना, हर तीर—

जैसे उसके दिल के अंदर जाकर बैठ जाता था।

लेकिन फिर भी…

वो शांत थी।

क्योंकि वो टूटने की जगह जी रही थी।

बस… जीने की कोशिश में।

---

और इसी शहर से दूर… मुंबई में

एक कांच से बने ऊँचे टॉवर की 32वीं मंजिल पर

काले सूट में, घड़ी को देखता हुआ खड़ा था—

आरिक सिंघानिया।

जिसकी आँखें ठंडी थीं।

चेहरा कठोर।

आवाज़ कम।

और विश्वास? लगभग किसी पर नहीं।

वो सिंघानिया ग्रुप का वारिस था।

शहर जिसे सलाम करता था।

लेकिन जीवन ने उससे भी कुछ छीन लिया था…

कुछ ऐसा…

जिसने उसे अंदर से खाली छोड़ दिया था।

कहते हैं—

जो लोग बाहर से सबसे मजबूत दिखते हैं,

अंदर सबसे अधिक अकेले होते हैं।

आरिक… वैसा ही था।

---

पर किसे पता था—

छोटे से शहर उदयपुर में बैठी

सफेद साड़ी की एक टूट चुकी लड़की

और

मुंबई के आसमान पर राज करने वाला एक पत्थर दिल आदमी…

एक दिन एक-दूसरे की ज़िन्दगी बदलने वाले हैं।

कहते हैं,

किस्मत… हमेशा चुपचाप चलती है।

धीरे-धीरे।

बिना शोर किए।

और यह कहानी…

बस शुरू हुई है।

chapter 2

मुंबई का आसमान, और एक अधूरा आदमी…

मुंबई कभी रुकती नहीं।

ट्रैफिक की आवाज़, लोगों की भागदौड़, रात को भी जगते नीयन लाइट्स — यहाँ सब कुछ तेज़ था, हड़बड़ाहट से भरा…

और इसी तेज़ रफ्तार में एक आदमी था, जो भीतर से बेहद थका हुआ था।

आरिक सिंघानिया।

किसी बिजनेस पत्रिका के कवर पर देखने वाले लोग शायद कहेंगे—

“क्या शख़्स है! कितना ताकतवर! कितना सफल!”

पर शक्ति और सफलता हमेशा शांति नहीं लातीं।

कभी-कभी तो ये सबसे बड़ा पिंजरा बन जाती हैं।

आरिक 32वीं मंज़िल पर बने अपने ओफिस के कांच वाले वॉल पर खड़ा शहर को देख रहा था।

गाड़ियाँ छोटे-छोटे नन्हें कीड़ों की तरह दिखती थीं…

ज़िन्दगी भाग रही थी…

और वो, उसे बस देख रहा था।

उसके कमरे में बड़े कॉरपोरेट मीटिंग की फाइलें, कॉन्ट्रैक्ट्स, और कागज़ रखे थे—

पर उसकी नज़र उनमें नहीं थी।

उसका मन कहीं और था।

कहीं… बहुत दूर।

दरवाज़े पर दस्तक हुई।

“Come in.”

आरिक की आवाज़ शांत थी, लेकिन उसमें एक अजीब सी खालीपन थी।

अंदर आया कबीर, उसका सबसे भरोसेमंद स्टाफ — और शायद, इंसान के रूप में जो उसके सबसे करीब था।

“सर, उदयपुर हेरिटेज होटल प्रोजेक्ट का बोर्ड मीटिंग आज शाम तय हो गया है,” उसने कहा।

“Hmm.”

आरिक ने बस इतना कहा।

कबीर ने उसे देखा।

कुछ सेकंड।

चुपचाप।

वह समझ चुका था—

आरिक इस समय कहीं और था।

शायद किसी याद में।

या किसी खोए हुए में।

“सर… आज…”

कबीर धीरे से बोला,

“आज… मैम की… बरसी है न?”

कमरे में हवा थोड़ी और भारी हो गई।

आरिक की आँखें कांच के पार शहर से हटकर, बहुत भीतर उतर गईं।

अहाना।

उसका नाम था अहाना।

उसकी पत्नी।

उसका प्यार।

उसकी सांस।

और उसकी सबसे बड़ी चुभन।

वो चली गई थी।

अचानक।

बिना कुछ कहे।

जैसे मौत को जल्दी थी।

जैसे ज़िन्दगी देर से जी रही थी।

आरिक ने धीरे से अपनी उंगलियाँ बंद कीं।

“मीटिंग की तैयारी करवाओ,”

उसने बस इतना कहा।

कबीर समझ गया —

आरिक आज भी उससे भाग रहा है।

अपने अतीत से।

अपने दर्द से।

अपनी अधूरी कहानी से।

वो चुपचाप कमरे से बाहर चला गया।

 

उसी समय — उदयपुर में

मीरा अब हवेली के आँगन में खड़ी थी।

आज हवेली में बहुत लोग आने वाले थे।

धीमी रोशनी, पीतल की दीपक की लपटें, और घर के पुरोहित की आवाज़ — सब कुछ तैयार था।

सावी राठौड़ सब देख रही थीं।

उनकी आँखें लाल थीं, शायद रोने से नहीं —

गुस्से, पछतावे और अभिमान से।

उन्हें लगता था,

अगर उस दिन, उस रात,

वो बहू उनकी गाड़ी में नहीं होती…

तो वीर आज जिंदा होता।

नफ़रत का कोई तर्क नहीं होता।

बस दर्द होता है — जो रास्ता ढूँढ लेता है।

मीरा शांत खड़ी थी।

उसके हाथ जुड़े हुए।

चेहरा शांत।

आँखें खाली।

पर उसके अंदर?

वहाँ आज तूफ़ान था।

वो वीर को बहुत चाहती थी।

सांसों जितना।

उसकी यादें ही उसकी ज़िन्दगी थीं।

उसकी हँसी ही उसकी पूजा थी।

किसे दोष दे?

किसे समझाए?

किसी को फर्क नहीं पड़ता था।

 

दोपहर

मीरा को हवेली के मेहमानों को चाय परोसनी थी।

वो बाहर आँगन में गई।

लोग बातें कर रहे थे:

“बेचारी सावी…”

“बेटा चला गया…”

“और ये?”

“बस जिंदा है… किस्मत देखो।”

हर शब्द सुई की तरह था।

मीरा का हाथ हल्का सा कांपा।

लेकिन उसने चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आने दी।

ये ही तो उसकी सबसे बड़ी ताकत थी—

चुप्पी।

उसी समय हवेली के बड़े दरवाज़े पर काली ऑडी आकर रुकी।

सबने मुड़कर देखा।

गाड़ी से उतरा

काला सूट, पैनी आँखें, भारी और स्थिर कदमों वाला आदमी—

आरिक सिंघानिया।

पूरा आँगन थोड़ी देर के लिए रुक गया।

राठौड़ हवेली और सिंघानिया ग्रुप का पुराने समय का बिजनेस जुड़ाव था।

वीर संभालता था —

अब उसकी जगह सावी मीटिंग करती थीं।

पर आज…

वो खुद आया था।

आरिक ने चारों तरफ एक नजर डाली।

चेहरा हमेशा की तरह पत्थर।

आँखें हमेशा की तरह शांत।

लेकिन कुछ था…

जैसे उसके अंदर कोई पुराने मकान की खिड़की आज खुली हो।

और फिर…

उसकी नज़र मीरा पर पड़ी।

सफेद साड़ी में, झील की तरह शांत,

पर आँखों में डूबा हुआ गहरा समंदर।

मीरा ने देखा —

लेकिन तुरंत नजर झुका ली।

उन दोनों के बीच कुछ नहीं कहा गया।

पर कुछ महसूस हुआ।

बहुत हल्का।

बहुत धीरे।

बहुत अनकहा।

जैसे दो घायल आत्माओं ने

एक-दूसरे की चोट पहचान ली।

कभी-कभी किसी को नाम से पहले दर्द से पहचाना जाता है।

और आज ऐसा ही हुआ।

आरिक ने खुद को संभाला।

सावी के पास गया।

पर उसकी आँखें…

कभी-कभी…

अचानक…

खिड़की के पास खड़ी उस लड़की की तरफ मुड़ जातीं।

 

शाम

रिवाज खत्म हो चुके थे।

लोग जा चुके थे।

मीरा मंदिर में दीया जला रही थी।

chapter 3

पहला संवाद — दो टूटे दिलों के बीच

राठौड़ हवेली उस शाम थोड़ा ख़ाली लग रही थी।

सूरज झीलों के पीछे उतर रहा था, और महलों की दीवारों पर हल्की सुनहरी रोशनी फैल रही थी।

हवा में धीमी-धीमी ठंडक थी…

वही ठंडक जो उदयपुर की शाम में हमेशा रहती है।

हवेली के भीतर, मीरा मंदिर के सामने बैठी हुई थी।

दीयें के सामने उसके हाथ जुड़े थे…

पर उसकी आँखों में कोई माँग नहीं थी।

बस धन्यवाद।

शायद वो बस इतना चाहती थी—

कि भगवान उसे थोड़ा और सहने की ताकत दे दें।

दूसरी तरफ, आँगन के छोर पर आरिक खड़ा था।

उसके हाथ पैंट की जेबों में थे, कंधे सीधे, चेहरा शांत।

लेकिन आँखें…

वो आज पहली बार किसी को देख रही थीं,

सिर्फ देखने के लिए —

न कि परखने के लिए।

उसे नहीं पता था कि वो क्यों बार-बार उस तरफ खिंच रहा था

जहाँ सफ़ेद साड़ी में वो लड़की बैठी थी।

कबीर दूर से देख रहा था।

उसे यह समझने में वक़्त नहीं लगा —

दिल कभी-कभी बिना इजाजत भी कुछ महसूस कर लेता है।

---

मीरा उठी।

दीया थोड़ा झिलमिलाया।

वो पीछे मुड़ी —

और लगभग सामने आरिक खड़ा था।

वो चौंकी नहीं।

बस रुक गई।

कुछ सेकंड…

फिर हवा बोली।

पत्ते खनके।

दीया डोल गया।

पर दोनों…

चुप।

आरिक ने इस बार बातचीत शुरू की।

धीमे, बहुत धीमे—

जैसे कोई जख़्म को छूते समय सावधानी रखता है।

“तुम यहाँ रहती हो… अकेली?”

मीरा ने उसकी आँखों में देखा।

न डर, न झिझक —

बस सीधी, शांत सच्चाई।

“अकेली नहीं…

लोग बहुत हैं।

बस… साथ कोई नहीं।”

आरिक ने यह जवाब महसूस किया।

गहराई में।

कहीं बहुत अंदर।

कुछ पल दोनों फिर चुप रहे।

उसने अगला सवाल नहीं किया।

क्योंकि मीरा ने कहा था —

जहाँ साथ नहीं, वहाँ सवाल भी नहीं होते।

मीरा ने हल्की साँस ली।

आँखें झील जैसी थीं —

शांत ऊपर से,

पर गहरी… बहुत गहरी।

“आपको यहाँ आना कैसा लगा?”

आरिक ने झीलों की रोशनी की तरफ देखा।

एक कड़वी मुस्कान आई, बहुत हल्की।

“अंधेरा यहाँ भी है।

बस जगह अलग है।”

मीरा ने सिर झुकाया —

मानो उसने उसी पल समझ लिया।

“सब सोचते हैं दर्द सिर्फ उन्हीं के पास है।”

उसने धीमे कहा।

“और असल में?”

आरिक ने पूछा।

“दर्द… सबके यहाँ रहता है।

बस रूप बदल लेता है।”

उनकी आवाज़ें इतनी शांत थीं,

कि अगर कोई पास होता,

उसे लगा होता कि दो लोग बात नहीं,

दर्द बात कर रहा है।

---

एक और पल।

एक और साँस।

फिर आरिक ने पीछे हवेली की तरफ इशारा किया—

“ये घर… तुम्हें कैसा लगता है?”

मीरा ने जवाब दिया:

“ये घर… कड़ा है।

बहुत कड़ा।

जैसे पत्थर।”

आरिक ने धीरे से कहा:

“और तुम?”

“मैं भी कभी पत्थर बनने की कोशिश करती हूँ,”

मीरा ने कहा,

“पर मैं बन नहीं पाती।”

आरिक ने सिर थोड़ा झुकाकर उसे देखा।

धीमी नर्म आँखों से,

जैसे वो किसी बहुत कीमती और बहुत टूटी चीज़ को देख रहा हो।

“अच्छा है,” वह बोला,

“पत्थर बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

पत्थर टिकते तो हैं…

पर जीते नहीं।”

मीरा ने पहली बार —

बहुत हल्का सा,

बहुत छोटा सा —

मुस्कुराया।

वो मुस्कान…

जैसे किसी बहुत सूखे पेड़ पर

पहला छोटा पत्ता उग आया हो।

---

और उधर…

दूर से यह सब सावी राठौड़ ने देखा।

उनकी आँखें सिकुड़ गईं।

दिल में कहीं आग जल उठी—

खामोश, पर तेज़।

“नहीं…

यह नहीं होने दूँगी।”

उन्होंने मन में कहा।

क्योंकि जो दर्द वो सालों से ढो रही थीं,

उसे बाँटने का हक

उन्हें किसी को नहीं देना था।

और कहानी के धागे…

धीरे-धीरे

कसने लगे।

---

और उस रात…

मीरा अपने कमरे में खिड़की से झील देख रही थी।

उसके दिल में कोई हलचल थी।

बहुत हल्की…

जैसे हवा में कोई नया सुर।

उसने खुद से कहा—

“ये कुछ भी नहीं है।”

“ये बस एक बात थी।”

“किस्मत ने बस एक पल को रास्ते टकराए हैं, बस।”

पर वो जानती थी —

दिल जहाँ चोट पहचान ले…

वहाँ खामोशी भी धड़कने लगती है।

उधर, मुंबई लौटने वाले फ्लाइट टिकट की फाइल

आरिक की टेबल पर पड़ी थी।

वो उसे उठाने गया…

पर हाथ ठहर गया।

और पहली बार…

उसने रुक जाने के बारे में सोचा।

एक लड़की के लिए?

नहीं।

किसी प्यार के लिए?

नहीं।

एक खामोशी के लिए।

जो उसे समझती थी।

App Store और Google Play पर MangaToon APP डाउनलोड करें

नॉवेल PDF डाउनलोड
NovelToon
एक विभिन्न दुनिया में कदम रखो!
App Store और Google Play पर MangaToon APP डाउनलोड करें