पहला संवाद — दो टूटे दिलों के बीच
राठौड़ हवेली उस शाम थोड़ा ख़ाली लग रही थी।
सूरज झीलों के पीछे उतर रहा था, और महलों की दीवारों पर हल्की सुनहरी रोशनी फैल रही थी।
हवा में धीमी-धीमी ठंडक थी…
वही ठंडक जो उदयपुर की शाम में हमेशा रहती है।
हवेली के भीतर, मीरा मंदिर के सामने बैठी हुई थी।
दीयें के सामने उसके हाथ जुड़े थे…
पर उसकी आँखों में कोई माँग नहीं थी।
बस धन्यवाद।
शायद वो बस इतना चाहती थी—
कि भगवान उसे थोड़ा और सहने की ताकत दे दें।
दूसरी तरफ, आँगन के छोर पर आरिक खड़ा था।
उसके हाथ पैंट की जेबों में थे, कंधे सीधे, चेहरा शांत।
लेकिन आँखें…
वो आज पहली बार किसी को देख रही थीं,
सिर्फ देखने के लिए —
न कि परखने के लिए।
उसे नहीं पता था कि वो क्यों बार-बार उस तरफ खिंच रहा था
जहाँ सफ़ेद साड़ी में वो लड़की बैठी थी।
कबीर दूर से देख रहा था।
उसे यह समझने में वक़्त नहीं लगा —
दिल कभी-कभी बिना इजाजत भी कुछ महसूस कर लेता है।
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मीरा उठी।
दीया थोड़ा झिलमिलाया।
वो पीछे मुड़ी —
और लगभग सामने आरिक खड़ा था।
वो चौंकी नहीं।
बस रुक गई।
कुछ सेकंड…
फिर हवा बोली।
पत्ते खनके।
दीया डोल गया।
पर दोनों…
चुप।
आरिक ने इस बार बातचीत शुरू की।
धीमे, बहुत धीमे—
जैसे कोई जख़्म को छूते समय सावधानी रखता है।
“तुम यहाँ रहती हो… अकेली?”
मीरा ने उसकी आँखों में देखा।
न डर, न झिझक —
बस सीधी, शांत सच्चाई।
“अकेली नहीं…
लोग बहुत हैं।
बस… साथ कोई नहीं।”
आरिक ने यह जवाब महसूस किया।
गहराई में।
कहीं बहुत अंदर।
कुछ पल दोनों फिर चुप रहे।
उसने अगला सवाल नहीं किया।
क्योंकि मीरा ने कहा था —
जहाँ साथ नहीं, वहाँ सवाल भी नहीं होते।
मीरा ने हल्की साँस ली।
आँखें झील जैसी थीं —
शांत ऊपर से,
पर गहरी… बहुत गहरी।
“आपको यहाँ आना कैसा लगा?”
आरिक ने झीलों की रोशनी की तरफ देखा।
एक कड़वी मुस्कान आई, बहुत हल्की।
“अंधेरा यहाँ भी है।
बस जगह अलग है।”
मीरा ने सिर झुकाया —
मानो उसने उसी पल समझ लिया।
“सब सोचते हैं दर्द सिर्फ उन्हीं के पास है।”
उसने धीमे कहा।
“और असल में?”
आरिक ने पूछा।
“दर्द… सबके यहाँ रहता है।
बस रूप बदल लेता है।”
उनकी आवाज़ें इतनी शांत थीं,
कि अगर कोई पास होता,
उसे लगा होता कि दो लोग बात नहीं,
दर्द बात कर रहा है।
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एक और पल।
एक और साँस।
फिर आरिक ने पीछे हवेली की तरफ इशारा किया—
“ये घर… तुम्हें कैसा लगता है?”
मीरा ने जवाब दिया:
“ये घर… कड़ा है।
बहुत कड़ा।
जैसे पत्थर।”
आरिक ने धीरे से कहा:
“और तुम?”
“मैं भी कभी पत्थर बनने की कोशिश करती हूँ,”
मीरा ने कहा,
“पर मैं बन नहीं पाती।”
आरिक ने सिर थोड़ा झुकाकर उसे देखा।
धीमी नर्म आँखों से,
जैसे वो किसी बहुत कीमती और बहुत टूटी चीज़ को देख रहा हो।
“अच्छा है,” वह बोला,
“पत्थर बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
पत्थर टिकते तो हैं…
पर जीते नहीं।”
मीरा ने पहली बार —
बहुत हल्का सा,
बहुत छोटा सा —
मुस्कुराया।
वो मुस्कान…
जैसे किसी बहुत सूखे पेड़ पर
पहला छोटा पत्ता उग आया हो।
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और उधर…
दूर से यह सब सावी राठौड़ ने देखा।
उनकी आँखें सिकुड़ गईं।
दिल में कहीं आग जल उठी—
खामोश, पर तेज़।
“नहीं…
यह नहीं होने दूँगी।”
उन्होंने मन में कहा।
क्योंकि जो दर्द वो सालों से ढो रही थीं,
उसे बाँटने का हक
उन्हें किसी को नहीं देना था।
और कहानी के धागे…
धीरे-धीरे
कसने लगे।
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और उस रात…
मीरा अपने कमरे में खिड़की से झील देख रही थी।
उसके दिल में कोई हलचल थी।
बहुत हल्की…
जैसे हवा में कोई नया सुर।
उसने खुद से कहा—
“ये कुछ भी नहीं है।”
“ये बस एक बात थी।”
“किस्मत ने बस एक पल को रास्ते टकराए हैं, बस।”
पर वो जानती थी —
दिल जहाँ चोट पहचान ले…
वहाँ खामोशी भी धड़कने लगती है।
उधर, मुंबई लौटने वाले फ्लाइट टिकट की फाइल
आरिक की टेबल पर पड़ी थी।
वो उसे उठाने गया…
पर हाथ ठहर गया।
और पहली बार…
उसने रुक जाने के बारे में सोचा।
एक लड़की के लिए?
नहीं।
किसी प्यार के लिए?
नहीं।
एक खामोशी के लिए।
जो उसे समझती थी।
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