दहेज़, एक प्रेम कथा..भाग 05

1.

कवीश की शादी कैसे टूटी ? यह जानने के लिए हमें कुछ माह पीछे जाना होगा।

रमणीक लाल और कामिनी के दो बेटे, बड़ा कवीश और छोटा कबीर और दोनों की एक बहन भी थी।

  “ तुम्हें काम करते हुए पाँच वर्ष हो चुके हैं। अच्छा खासा कमा लेते हो। अब तुम्हे शादी कर लेनी चाहिए ।” कवीश के पापा रमणीक लाल ने कवीश से कहा।

“एक रिश्ता आया है। हमें लड़की देखने आज शाम सात बजे  उनके घर जाना है। लड़की का नाम आकृति है। ”

अपना फरमान सुना कर रमणीक लाल चले गए।

शाम को रमणीक लाल उनकी पत्नी  कामिनी और कवीश आकृति के घर पहुँचे।

आकृति की मम्मी ने उनका स्वागत किया और कहा,

“ आकृति और उसके पापा बस आते ही होंगे ।”

“ आपने उन्हें बताया नहीं हम आने वाले हैं ?” रमणीक लाल ने कहा।

“ जी नहीं ! यह बात नहीं है, दरअसल अचानक उनके सीने में दर्द उठा बहुत मना करने के बाद भी आकृति उन्हें डॉक्टर के पास ले गई।”

थोड़ी देर में आकृति और उसके पापा आ गए।

“ आपको इन्तजार करना पड़ा । माफ़ी चाहता हूँ। रमणीक लाल जी और सुनाइए आप कैसे हैं ?”

‘‘ बस साहब बच्चे एक दूसरे को पसंद कर लें, फिर हम लोग बैठ कर ‘’बाकी बातें’’ भी तय कर लेंगे। ”

" जी ज़रूर "  आकृति के पापा ने ‘‘बाकी बातों’’ का अर्थ हलके में लिया और रमणीक लाल को पहचानने में उनसे यही एक भूल हो गई।

आकृति ने कवीश को नज़र भर कर देखा, फिर अपनी नज़रें झुका ली। एक तरफ अपने पापा की तबियत से परेशान और दूसरी और अपने होने वाले पति को देखने, जानने, मिलने की उत्सुकता, उत्कंठा ने उसके चहरे पर न बूझने वाले भाव पैदा कर दिए थे।

कवीश ने भी आकृति को देखा। उसके तीखे नैन नक्श और गोरे रंग पर काली कज़रारी आँखे खूब फबती थीं और अभी कविश सिर्फ इस बात की कल्पना ही कर सकता था कि वह मुस्कुराते हुए क्या गज़ब ढा सकती है।हालांकि अपने पिता की ख़राब तबियत से उसका चेहरा व्याकुल था, मगर  यह लोच से भरा हुआ सौंदर्य था, जो किसी दर्द की आड़ में छुप नहीं सकता,  ठीक उसी तरह जैसे बादलों से अधढके चाँद की चाँदनी रोके नहीं रूकती बल्कि समां और भी सुहाना हो जाता है, उपर से अतंस की पीड़ा ने उसके चहरे पर वो आकर्षण पैदा कर दिया था, वो निखार दे दिया था, जो उसके सात्विक भाव से परिपूर्ण होता था। कवीश चाह कर भी उससे नज़रें हटा न सका । 

“…जी नमस्ते…।” आकृति ने अपनी कोमल मधुर आवाज़ में जब कहा तो जैसे कविश का ध्यान भंग  हुआ।

"नमस्ते...।" कवीश की जैसे तंद्रा टूटी। उसने राधिका के जवाब में अभिवादन किया।

“ बैठो बेटी।” उसकी माँ ने यह कहते हुए उसे बैठने को कहा।

‘‘  आप तो जानते हैं, इसने एम. बी. ए. किया है, और अब यह जॉब कर रही है।”

‘‘ अरे साहब ! इतनी महंगाई में जॉब तो दोनों को करना ही पड़ता है। ” रमणीक लाल ने आकृति के वर्षो के कड़े परिश्रम पर पानी फेरते हुए कहा।

“ जी !! आपने बात तो सही कही है। आजकल दोनों को काम करना ही पड़ता है। ” आकृति के पापा ने रमणीकलाल से सहमत होते हुए कहा।

“ अरे भाई !! तुम लोगों को कुछ बातें वातें करना हो तो कर लो। ” रमणीक लाल ने हमेशा की तरह कहा।

यह सुन कर कवीश और आकृति टेरस पर चले गए।

“ मकान तो अच्छा बनाया है आपने ”रमणीक  लाल ने कहा, 

“ बस साहब हम मिडिल क्लास लोगों की ज़िन्दगी बच्चों को पढ़ाने और अपने लिए एक मकान बनाते हुए गुज़र जाती है। ”

‘‘ साहब !! मंगाई इतनी है कि, इतना भी कर लिया तो बहुत है, फिर भी शादियों में 25-30 लाख खरच हो जाना आम बात है। ’’ रमणीक लाल ने हथेलियों पर मली हुई तमाखू अपने होठ के बीच दबाते हुए और बातों को अपनी और घुमाते हुए कहा।

“ आकृति के पापा ने जीवन भर ईमानदारी से काम किया और ज्यादा पैसा तो नहीं जोड़ सके, मगर जो इज्जत और सुकून कमाया है। वही हमारे लिए बहुत है।” आकृति की मम्मी ने कहा।

“ सो तो है ।” रमणीक लाल ने इस वक्त ज़्यादा कुछ कहना उचित न समझा और अपनी लालसा पर लगाम लगाते हुए चुप हो गए।

उधर टेरेस पर दो निश्छल ह्रदय मिल रहे थे। नीचे हो रही दुनियादारी की बातों से, लालच, लालसा और कुटिल इरादों से बेखबर, अपने भविष्य के वे सपने संजोने लगे। वे जैसे एक दूसरे के लिए ही बने थे। ठण्ड की सुनहरी धूप खिली हुई थी। राधिका के चेहरे पर पड़ने वाली धूप ने उसका रंग और भी उभार दिया था। आज मौसम भी अपने पूरे शबाब पर था, ऐसा लग रहा था जैसे दो सादगी भरे दिलों को प्रेम से बातें करते देख, ईश्वर पूरे मन से अपना आशीर्वाद दे रहे हो।

पहली नज़र में ही कवीश को आकृति की सादगी और सरलता पसंद आ गई। उसने राधिका के साथ अपनी बाकी ज़िन्दगी गुज़ारने का पूरी तरह मन बना लिया था।

उधर राधिका भी कविश के साथ बेहद सहज़ महसूस कर रही थी। यही वह एक माहौल था जिसने उसके ह्रदय में निश्चल प्रेम का पहला अंकुरण कर दिया था।

थोड़ी देर बातें करने के पश्चात वे नीचे आ गए।

“ तो हम अब चलते हैं। जैसा भी कवीश का निर्णय होगा हम बता देंगे ।”  रमणीक लाल ने कहा।

सभी के जाने के पश्चात आकृति के पापा ने कहा,

"  तुम ज़रा आकृति से भी पूछ लो ।''

आकृति की माँ ने कहा,

"कुछ पूछने की ज़रुरत नहीं है,  मैं माँ हूँ न, बेटी के दिल में क्या है, उसकी आँखों से पढ़ लेती हूँ, उसके बदलते चेहरों के भाव और चमकती आँखों ने सब कुछ बता दिया है ।"

"ओह्ह ! तो यह बात है। कभी हमारी नज़रें भी पढ़ लिया करो...। "आकृति के पापा ने मुस्कुराते हुए शरारती लहज़े में कहा।

 "अब आपकी वो उम्र नहीं रही। ये काम अब बच्चों के लिए रहने दीजिये ।"

उसने मुस्कुराते हुए नाश्ते की झूठी प्लेट समेटते हुए कहा।

2.

अब कवीश और आकृति की आपस में बात होने लगी। दो दिल और करीब आने लगे। ये कविश के लिये उतना ही मधुर समय था जितना कि आकृति के लिये।

रमणीक लाल अपने कारोबार में और आकृति के पापा अपनी बिमारी की वज़ह से आपस में मिलने का समय निकाल न सके और इस बीच चार माह और निकल गए।  इतने वक्त में दो युवा हृदय आकृति और कवीश के लिये एक दूसरे के पास आने हेतु पर्याप्त था।

3.

कुछ दिनों पश्चात रमणीक लाल ने बात आगे बढ़ाने के लिये आकृति और उसके मम्मी पापा को अपने घर बुलवाया।

तय समय पर वे दोनों रमणिक लाल के घर पहुँचे।चाय पानी और कुछ औपचारिक बातों के पश्चात रमणीक लाल ने अपनी मन की बात कही।

" आप जो भी दहेज़ अपनी बेटी को देंगे वो उसके और उसके परिवार के काम आएगा। मेरे दो बेटे और एक बेटी है. मुझे भी अपने बेटी की शादी में दहेज़ देना होगा । यही परंपरा है और हमें इसे निभाना होगा।” रमणीक लाल की आवाज में एक बनावटी दृढ़ता थी।

“ वैसे आपकी क्या इच्छा है ? ” 

आकृति के पापा ने कुछ भी कहने के पहले एक मौका रमणीक लाल को दिया, ताकि वह चाहे तो दो पावन हृदय को मिलाने का जो अवसर ईश्वर ने दिया हैं, अपनी सहमति दे कर ईश्वर की उस इच्छा  का मान रख सके।

मगर लालची मन पर पर्दा न पड़ा होता तो वो कवीश और आकृति की खुशिया देख पाते। रमणीक लाल ने जो भी मांग की वो एक सभ्य समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले और ताज़िन्दगी ईमानदारी पर चलने वाले आकृति के पिता को मंजूर न हुआ।

वे खड़े हो गए और हाथ जोड़ कर बोले,

“ रमणीक लाल जी, मैं अपनी बेटी नहीं बल्कि अपनी खुशियाँ आपके हवाले करने आया था, ताकि आप और आपका परिवार सारी ज़िन्दगी खुशियों से सराबोर रहते मगर आपने जो भी मांग की है उसके बाद यह प्रश्न गौण हो जाता है कि मैं आपके लालची मन को भर पाता हूँ या नहीं ? बल्कि मेरे सामने आपने अब यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि, मैं आपके परिवार में अपनी बेटी दूँ भी या नहीं ? और आप और आपका परिवार मेरी बेटी के लायक है भी या नहीं ?

यह सुनते ही रमणीक लाल ने तमतमाते हुए कहा,“ ये क्या कह रहे हैं आप ?”

“ वही रमणीक लाल जी जो आपने सुना। हम आपके बेटे को नहीं खरीद सकते उसे आप कही और बेच लीजिये…।”

और इतना कहते हुए वे उठ खड़े हुए और दरवाजे से होते हुए बाहर निकल गए।

रमणीक लाल को इस बात का अंदेशा तो पहले से ही था। उसने अँधेरे में तीर चलाया था, और इस बार निशाना चूक गया। कभी तो तीर निशाने पर लगेगा। यह सोचते हुए एक मुस्कान उसके चहरे पर आई। उसे मुस्कुराता देख उसकी पत्नी भी मुस्कुराने लगी।

शाम को जब कवीश घर आया तो उसे ज्ञात हुआ आकृति के पापा ने यह रिश्ता नामंजूर कर दिया तो उसने पूछा।

“ पापा आपने आकृति के पापा से क्या कहा कि उन्होंने ये रिश्ता नामंजूर कर दिया ?"

“ बेटा दुनिया की रस्मों रिवायतों से तो चलना ही पड़ता हैअब हमने तुम्हारी और आकृति के भले के लिए कुछ डिमांड रखी और तुम्हारे होने वाले ससुर नाराज़ हो कर चले गए।”

कवीश कुछ देर मौन बैठा रहा फिर उठ कर चला गया। परिवार के बड़े बेटे होने के कारण वह संस्कारों से बंधा था। अतः चुप रहा।

उधर जब आकृति के मम्मी पापा घर पहुँचे तब तक रात हो चुकी थी। आकृति ने पूछा,

" पापा खाना लगा दूं ?"

बेटा भूख नहीं हैं और वे सीधे अपने कमरे में चलें गए।

आकृति ने अपनी माँ की ओर देखा, कुछ पूछना चाहा मगर अपनी माँ की भीगी आँखो में उसे अपने सभी सवालों के जवाब मिल गए। यह अब तय था कि कवीश के साथ उसने जो ख्व़ाब देखे थे, वे अब महज ख्वाब ही रह जाने वाले हैं।

एक आँसू आकृति की आँख से गिरा और गालों से लुढ़कता हुआ जमीन पर आ गिरा। इस आँसू को सम्हालने वाले हाथ किसी इन्सान के अंतहीन लालच और आकृति के अरमान दहेज़ की बली चढ़ चुके थे।

4.

कुछ ही दिनों में खबर मिली कि आकृति के पापा ने उसका विवाह किसी दूसरे लड़के से कर दिया है।

यह सुन कर कवीश का दिल बैठ गया। छन से जैसे सारे सपने चूर चूर हो गए। एक अँधेरा उसकी आँखों के सामने छा गया। यह अन्धेरा ही उसकी किस्मत है तो यही सही। तभी उसने अब कभी विवाह न करने का फैसला कर लिया और अपने पापा रमणीक लाल को सुना दिया ।

मगर लालच के अंधे रमणीक लाल को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। वह तो जैसे अपने अगले शिकार की और कदम बढ़ाने की प्रतीक्षा में था। जब उन्हें ज्ञात हुआ काव्या के पापा बिल्डर हैं, और अच्छा दहेज़ देने की सामर्थ्य रखते हैं, तो अपनी छोटी बेटी से कहा वे कबीर की फोटो काव्या के मम्मी पापा को भेज दे।

कवीश की बहन  से कुछ न छुपा था। अपने भाई की हालत उससे देखी नहीं जा रहीं थी।  वह यह भी जानती थी कि कबीर की पसंद काव्या नहीं बल्कि राधिका है। वे दोनो माँ पिता की लालच और जिद का शिकार हो रहें थे। तब इस करके कि कवीश की जिन्दगी में खुशियाँ दस्तक दे, उसने जानबूझ कर कवीश के डिटेल्स काव्या को भेज दिये ताकि यदि कोई बात बननी हो तो बन जाए।

5.

और इससे हुआ यह कि बात बनने के आसार नज़र आने लगे। रिश्तों के नए समीकरण तैयार होने लगे। आगे आने वाले समय में कई जिन्दगियाँ बरबाद होने से बचने वाली थीं। अब कबीर को अपना प्यार मिलने वाला था और काव्या को कवीश, लेकिन यह सब उतना आसान न था। कवीश तो विवाह ही नहीं करना चाहता था। यह काव्या के लिए चुनौती थीं कि वह कवीश को विवाह के लिये कैसे तैयार करती है ?

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