"तो अब हमें आज्ञा दीजिये।" अर्जुन मुस्कुराया और मधुबाला के साथ वहां से चल दिया।
अर्जुन को जाते हुए देख देव ने लंबी सांस ली और फिर छोड़ी, "कोई इतना प्यारा कैसे हो सकता है?" उसने धीमी सी आवाज़ में कहा। उसके चेहरे पर एक अंजान सी मुस्कान थी जिसका अंदाज़ा शायद उसे भी नहीं था।
"रुको रुको!" देव कमल के साथ खड़े उसके मित्र योगेश ने कहा। "कही ये प्रेम तो नहीं?" वह हैरानी भरी आवाज़ में चिल्लाया और वो भी बीच भरे बाज़ार में।
देव ने तुरंत ही अपनी मुस्कान छुपाई और बेचैनी के साथ इधर उधर देख कर आदेश देने लगा, "जल्दी करो। हमें बहुत सारे कार्य सँभालने है। ज़रा सी भी देरी नहीं होनी चाहिए।" यह कहकर वह तेज़ी से आगे चल पड़ा।
"अरे! रुको तो सही!" पवन, देव का चौथा मित्र चिल्लाया।
...... ...
"कुमार! सच में स्वर्णलोक राज्य वाक़ई में स्वर्ण ही है।" मधुबाला महल को निहारते हुए बोली।
"सत्य वचन।" अर्जुन ने जवाब दिया।
राजमहल में उस दिन राजकुमार ईन्द्रजीत का राज्य अभिषेक था, इसलिए दूर दूर से राजकीय व आम लोग आए थे। इतने लोगों को एक साथ देख अर्जुन अचंभित था क्योंकि इससे पता चलता है कि राजकुमार इंद्र्जीत उन सभी लोगों को कितने प्रिय थे। अर्जुन यह सब सोच ही रहा होता है कि उसी वक्त द्वारपाल कहता है, "देवों के आशीर्वाद सहीत, राज्य के हित में सदैव खड़े रहने वाले, शुद्ध व विकसित विचारों वाले, स्वर्णलोक के राजाधिराज, योगीराज, श्री श्री श्री त्रिलोक नाथ पधार रहे हैं।" यह सुनते ही राजमहल में बैठे सभी सदस्य सम्मान सहित उठ खड़े हुए। अर्जुन और मधुबाला भी।
राजा त्रिलोक नाथ के पीछे ही राजकुमार इंद्रजीत भी आ रहे थे। उसकी आँखें मानों जैसे अपने पिता के आदेशों के अलावा कुछ और देखती ही नहीं। परन्तु उन ही आँखों में यदि कोई कुछ क्षणों से अधिक देख लें, तो डूब ही जाए। अर्जुन का भी यही हाल था। वह इंद्रजीत से अपनी नज़रे हटा ही नहीं पा रहा था।
राजकुमार इंद्रजीत
मधुबाला भी राजकुमार की सुन्दरता देख चकित थी, "कुमार, यह राजकुमार तो बहुत ही-" उसने अर्जुन की ओर देखा और उसे तुरंत ही समझ में आ गया कि अर्जुन पहले से ही स्वर्णलोक के राजकुमार की आंखों में डूब चुका था। वह मुस्कुराने लग गई।
अर्जुन इंद्रजीत को देख ही रहा होता है कि तभी उसकी नज़र उसके सामने खड़े व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देव कमल था। "ये यहाँ क्या कर रहे हैं?" उसने सोचा। "जो भी हो।" उसने देव से नज़र हटाई और फिर से इंद्रजीत की ओर देखने लगा। तभी अचानक इंद्रजीत ने भी उसकी ओर देखा। दोनों ने कुछ ना कहते हुए भी नज़रों ही नज़रों में बहुत कुछ कह दिया।
राज्य अभिषेक के सभी कार्य शुरू हुए और राज्य पुरोहित ने मंत्र पढंने शुरू कर दिए। सभी मौजूद लोग राजकुमार इंद्रजीत को ही निहार रहे थे मानो जैसे वह कोई देव हो।
धीरे धीरे कुछ ही क्षण के अंदर राज्य अभिषेक सम्पन्न हुआ।
"हमें गर्व है ऐसा पुत्र पाके जिसके लिए उसका कर्तव्य ही सबसे श्रेष्ठ है। किंतु..." राजा त्रिलोक नाथ बोलते बोलते रुक गए।
"किंतु क्या महाराज?" हँसराज दामोदर, जो कि महाराज का सबसे भरोसेमंद मंत्री था, ने पूछा। (वह एक नौजवान व अनुभवी व्यक्ति था।)
"मुझे डर है कि कहीं हर क्षण केवल कार्य और कर्तव्य सँभालते सँभालते वह अपना जीवन जीना ही ना भूल जाए।" महाराज ने जवाब दिया। "ऐसा लगता है कि जैसा ज़िम्मेदारीयों के कारण उसने जीवन में अपनी खुशी की लालसा ही छोड़ दी है।"
हँसराज ने इंद्रजीत की ओर देखा। इंद्रजीत की आंखों में ना ही कोई चमक थी और ना ही कोई और भावना। केवल कार्य की चिंता। हँसराज ने वापस महाराज की ओर देखा और कहा, "मैं राजकुमार को अपने अनुज (छोटा भाई) जैसा मानता हूँ। मैं आपको वचन देता हूँ कि राजकुमार को अपना जीवन जीने की लालसा जल्द ही महसूस होगी।" वह मुस्कुराया।
महाराज एक एक करके सभी मेहमानों से वार्तालाप कर रहे थे उनके स्वागत के तौर पे। अब बारी थी अर्जुन की जो कि अंबुझ राज्य की तरफ़ से आया था।
"महाराज, आपके बारे में खूब सुना था पिता जी के मुँह से। आज देख भी लिया। वाकई में आपका तेज ही काफ़ी है आपकी योग्यता को दर्शाने के लिए।" अर्जुन ने त्रिलोक नाथ को प्रणाम करने के बाद कहा।
राजा त्रिलोक नाथ हँसे और बोले, "सच में क्या ऐसा कहा महाराज धनवीर ने?"
"जी।" अर्जुन ने जवाब दिया। वह हँसा।
राजा त्रिलोक नाथ और राजा धनवीर (अर्जुन के पिता) बचपन में बहुत ही खास मित्र हुआ करते थे। इस हिसाब से, अर्जुन उनके लिए एक खास मेहमान था।
"अरे! मेरे बेटे से तो मिलिए!" त्रिलोक नाथ ने कहा और इंद्रजीत को आवाज़ लगाई।
इंद्रजीत ने महाराज की ओर देखा और तुरंत ही वहां जा खड़ा हुआ। "महाराज, आज्ञा।" उसने सिर नीचे करके कहा।
त्रिलोक नाथ हँसते हुए बोले, "कुमार। आज कोई आज्ञा नहीं। यह है मेरे बचपन के परम मित्र के सुपुत्र, अर्जुन वेनू।" वह मुस्कुराया।
अर्जुन ने मुस्कुराते हुए इंद्रजीत की ओर देखा, "प्रणाम। मिल के खुशी हुई।" मधुबाला ने भी प्रणाम किया।
इंद्रजीत ने केवल सिर झुकाकर प्रणाम किया। वह एक शब्द भी नहीं बोला।
"ये तो बड़ी अजीब बात है। इतने बड़े राज्य के होने वाले राजा होते हुए भी ऐसे स्वागत करते हैं अपने अतिथियों का?" अर्जुन ने मुंह बनाते हुए सोचा। इंद्रजीत का मुस्कुराना या कुछ कहना तो बाद की बात है, वह तो अर्जुन की तरफ़ देख भी नहीं रहा था।
तभी वहां हँसराज भी आ पहुंचता है। उसने दूर से अर्जुन को देखा और हैरानी से बोला, "राजकुमार अर्जुन!" वह दौड़ता हुआ उसकी ओर भागा।
अपना नाम सुनाई देने पर अर्जुन ने मुड़ के देखा और पाया कि उसे पुकारने वाला कोई और नहीं बल्कि हँसराज था। वह भी उसे देख कर हैरान था, "मित्र हँसराज!" वह दौड़ते हुए उसकी ओर गया और दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया। अर्जुन तो हँसराज को गले लगाते हवा में ही झूल रहा था। (छोटा कद जो ठहरा। हाहाहा!)
अब की बार इंद्रजीत ने उनकी तरफ़ अवश्य देखा।
मधु भी हँसराज के पास गई और उसने मुस्कुराते हुए उसके चरण स्पर्श किए। "अरे। खुश रहो।" हँसराज ने मधू को आशीर्वाद देते हुए कहा।
"हमारे लिए हैरानी की बात है।" महाराज ने कहा। "तुम दोनों एक दूसरे को इतने अच्छे से जानते होंगे, इसका ज्ञान मुझे नहीं था।"
"दरअसल, कुछ वर्ष पूर्व मैं अपने पिता के कहने पर आसपास के राज्यों में झड़ी बूटियों की तलाश में था। उसी वक्त मेरी भेंट राजकुमार अर्जुन से हुई। इतने प्यारे व्यक्ति से भला मैं मित्रता कैसे ना करता।" हँसराज ने जवाब दिया। (हँसराज के पिता जाने माने ज्ञानी वैद्य थे।)
"अच्छा। फिर?" महाराज ने उत्सुकता के साथ पुछा।
"फिर क्या। हम बातों ही बातों में कब इतने अच्छे मित्र बन गए, पता ही नहीं चला।" हँसराज ने जवाब दिया।
अर्जुन भी मुस्कुराया, "और उसके पश्चात हमने एक दूसरे को कबूतर के ज़रिए संदेश लिखने शुरू कर दिए।" मधुबाला भी मुस्कुराई।
इससे पहले उनके बीच कोई और बात होती, इंद्रजीत ने कहा, "महाराज, मुझे अब आज्ञा दें। बाकी मेहमानों का भी ख्याल रखना है।"
"अच्छा? ठीक है। " महाराज ने उत्तर दिया किन्तु अन्दर ही अन्दर वह चाहता था कि इंद्रजीत आज के दिन काम ना करे। इंद्रजीत बिना कुछ कहे वहां से चला गया। "माफ़ करना पुत्र। मेरा बेटा ऐसा ही है।" त्रिलोक नाथ ने अर्जुन और मधुबाला से क्षमा मांगते हुए कहा।
"कोई बात नहीं महाराज! आप क्षमा क्यों मांग रहे हैं?" अर्जुन ने तुरंत जवाब दिया।
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