Nature Heroes
सड़क के किनारे एक आदमी तेज़ क़दमों से चल रहा था। उसके कंधे पर एक हैंडबैग झूल रहा था—वही साधारण सा ऑफिस बैग, जिसे हर नौकरीपेशा आदमी अपने साथ रखता है। उसने करीने से प्रेस किया हुआ कोट और पैंट पहन रखा था, मगर उसकी चाल में थकान थी, चेहरे पर नाराजगी की गहरी लकीरें उभर आई थीं।
उसका मन अभी भी ऑफिस में हुए अन्याय पर उलझा हुआ था।
"मेरी जगह किसी और को प्रमोशन दे दिया? यह तो मुझे मिलना चाहिए था!"
वह बुदबुदा रहा था, उसकी मुट्ठियाँ अनजाने में भींच रही थीं, कदम ग़ुस्से से तेज़ होते जा रहे थे। उसके दांत आपस में कड़क रहे थे, जैसे वह अपने क्रोध को काबू में रखने की कोशिश कर रहा हो। उसकी निगाहें इधर-उधर घूम रही थीं, हर किसी को संदेह और गुस्से से घूर रही थीं, जैसे वे सब उसके खिलाफ़ कोई साजिश कर रहे हों।
सड़क पर हलचल थी। राहगीर अपनी दुनिया में व्यस्त थे—कोई फोन पर बात कर रहा था, कोई रिक्शे वाले से किराए पर बहस कर रहा था, तो कोई तेज़ी से बस पकड़ने के लिए दौड़ रहा था। गाड़ियाँ हॉर्न बजा रही थीं, दुकानों से आवाजें आ रही थीं। जीवन अपनी रफ़्तार में था।
लेकिन अचानक कुछ अजीब हुआ।
उसके चेहरे पर गुस्से की एक लाली फैलने लगी, जैसे खून उबलने लगा हो। उसकी सांसें भारी हो गईं, और फिर... धीरे-धीरे उसके शरीर से हल्की-हल्की लपटें उठने लगीं। पहले किसी ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब किसी की नज़र उसके जलते हुए हाथों पर पड़ी, तो हलचल मच गई।
"अरे! यह आदमी जल रहा है!" किसी ने घबराकर चीख़ते हुए कहा।
लोग ठिठक गए। कुछ घबराकर पीछे हट गए, कुछ ने अपने फोन निकाल लिए, तो कुछ भागने लगे। मगर हैरानी की बात यह थी कि उसका कोट, उसकी पैंट, उसका बैग—कुछ भी जल नहीं रहा था। सिर्फ़ उसकी ही त्वचा से आग निकल रही थी, जैसे उसका गुस्सा सचमुच लपटों में बदल गया हो।
लेकिन वह आदमी अभी भी अनजान था। उसने अपने चारों ओर घबराई भीड़ को देखा, और उसे लगा कि ये सब भी उसे उसी नफरत से घूर रहे हैं, जैसे ऑफिस में उसके सहकर्मी उसे देखते थे—उसे हारा हुआ मानकर।
फिर उसकी नज़र एक बच्ची पर पड़ी।
बच्ची अपनी माँ का हाथ पकड़े सहमी खड़ी थी। उसकी आँखों में मासूमियत थी, पर अब डर से भरी हुई। उसने धीरे से अपनी माँ से पूछा—
"माँ, यह अंकल जल क्यों रहे हैं?"
उसके शब्दों ने सब कुछ रोक दिया।
पहली बार, उस आदमी को एहसास हुआ कि कुछ ग़लत हो रहा है। उसने अपनी हथेलियों को देखा, अपने जलते हुए हाथों को... मगर कोई दर्द नहीं था।
उसकी नज़र सड़क के दूसरी ओर खड़ी एक कांच की इमारत पर पड़ी। वह लड़खड़ाते हुए उसके पास गया और अपने प्रतिबिंब को देखा।
वह जल रहा था।
उसकी त्वचा से लपटें उठ रही थीं, उसकी आँखें धधक रही थीं, लेकिन उसका कोट, उसकी पैंट, उसका बैग... वे वैसे के वैसे थे।
उसने खुद को देखा, अपनी भस्म होती हथेलियों को। कुछ पल तक बस घूरता रहा।
और फिर, अचानक, उसके भीतर कुछ टूट गया।
"मैं जल रहा हूँ!" उसने ज़ोर से चिल्लाया।
"मैं जल रहा हूँ!" उसकी आवाज़ सड़क पर गूंजने लगी।
"मैं जल रहा हूँ! मैं जल रहा हूँ!!"
वह घबराकर चारों ओर देखने लगा, उसकी सांसें तेज़ हो गईं, उसकी उंगलियाँ अकड़ने लगीं। भीड़ उसे डर से देख रही थी, लेकिन उसे ऐसा लग रहा था जैसे वे सब उस पर हंस रहे हों।
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